मंगलवार, 3 नवंबर 2009

कुंडार दर्शन


कुण्डार दर्शन
*******************
1
इतिहासों के जर्जर पन्ने ,
खंडहरों के दर्द शुमार !
गूँथ के लाया तुकबंदी में ,
गए महलों के आंसू चार !
मुझको कविता की समझ नही ,
मत कवि कहना मुझे मगर !
तुम्हे सुनाऊंगा मैं सब जो ।
कहता मुझसे गढ़ कुंडार !!
रहे ना राजा रजवाड़े ,
न महारानी राजकुमार !
न महलों में तुरही बजती ,
न ही सजते हैं दरबार !
राज बदल गए न्रपतियों के ,
राजलक्ष्मी भी जा सोयी !
पर यश अपयश सदा जियेंगे ,
यही सिखाता गढ़ कुंडार !!
3
जुल्मी हुकूमत तानाशाही ,
पाप अराजक व्यभिचार !
ये फसलें हैं कितने दिन की ,
लहरालें दिन दो या चार !
आतंक रहा न रावण का ,
ना सदा कंस की सत्ता ही!
समय मसीहा बनकर आता ,
बतलाता है गढ़ कुंडार !!
4
शौर्य वीरता के दिन देखे ,
भोगे बिलास बेशुमार !
सदा न शासक रहे चंदेले ,
रह न पाए राय खंगार !
ये सत्ता शासन राजलक्ष्मी ,
एक जगह कब ठहरे है
कैसे कैसे रूप बदलते ,
देख चुका है गढ़ कुंडार !!
5
धीर सुतों का ह्रदय रक्त जों ,
बना प्रसूता का सिंगार !
वीर सुतों के वर शीशों पर ,
इतराता है बारम्बार !
इतिहासों ने किया किनारा ,
बूढ़े की बातो से पर -
बार बार बलिदानी गाथा ,
दोहराता है गढ़ कुंडार !!
6
आँख फेरकर कल तक निकले ,
किंतु करोगे अब तुम चार १
सच्चाई पर थी जों चादर ,
आज हुई वो जर जर तार !
इस गढ़ की गौरव गाथा सुन ,
धाये कई एक कलम वीर !
ध्रुव तारे सा चमकेगा अब ,
जग में फिर से गढ़ कुंडार !!
7
मंजिल पास आ जाती है तो ,
आड़े आता है संसार !
रोड़े और रूकावट है भ्रम ,
लौट न जाना तू थक हार !
इसकी जटिल भुगौलिक रचना ।
ह्रदय भांपती आगत का !
सो पथिक से लुकाछिपी सी ,
करता रहता गढ़ कुंडार !!
8
शासन सत्ता न्योता देवें ,
और बुलावें आग व धार !
दरवारों की रौनकता पर ,
शीश कटावें बारम्बार !
कर्कशा कुटिल कौटाली थी ,
तजी रौनकता यह जान !
रचा कर नीरवता से व्याह ,
मौज मनाता गढ़ कुंडार !!
9
रत्न जडित स्वर्ण सिंहासन ,
मुक्ता मणियों  के उर हार !
शीश मुकुट बहु बेशकीमती ,
सब हो गए हैं क्षार क्षार !
दुनियां वालो देखो नाटक ,
नियति नटी के नर्तन का !
काल  चक्र के झंझावत में ,
बचा  अकेला गढ़ कुंडार !!
10
सत्ता के उत्थान पतन में,
हक में आई जीत न हार !
नियति नटी ने निर्णायक बन ,
माथा झूठ को बारम्बार !
सागर "समय" के मंथन में तब ,
द्वेष भाव का विष निकला !
अपमानों का गरल गटक है ,
नीलकंठ सा गढ़ कुंडार !!
११
झूठी रीती झूठी प्रीती ,
झूठे रिश्ते नातेदार !
झूठे बंधन झूठी माया ,
झूठा है यह संसार !
दुनियां भर के भोग भोगकर ,
सेज मिलेगी शोलों की !
शाश्वत सत्य जगत में एक ही ,
बोध कराता गढ़ कुंडार !!
१२
दुनियां भर की पोथी पढ़ लो ,
ग्रंथों वेदों का भी सार !
जीवन स्नातक हो जाओगे ,
आ जाओ बस इक ही बार !
जीवन की शाळा का दर्शन ,
यहाँ रमा है कण कण में !
शाश्वत सत्य का पाठ पढाता ,
रहकर मौन भी गढ़ कुंडार !!
१३
यौवन का रसिया जग सारा ,
बना रहे जब तक सिंगार !
सकल साधना चुक जाती है ,
मित्थ्याकर्षण का आधार !
देख मनुज की दुर्बलता को ,
ही ख़ामोशी ओढ़ गया !
न उपेक्षा न ही इच्छा अब ,
पाला करता गढ़ कुंडार !!
१४
सेंध लगाकर ढूंढा करते ,
सोने चांदी के भंडार !
चंदेलों की अतुल सम्पदा ,
किंवा छोड़ गए खंगार !
अपने अंतस के चक्षु खोलो ,
बहुत मिलेगा जीवन भर !
ज्ञान कोष के हीरे मोतीं ,
रोज लुटाता गढ़ कुंडार !!
१५
हम कलम पथी निज धार छोड़ ,
है खड्ग पंथ पर कलम धार !
मित्र मंडली मेरी सारी ,
हो गयी है अब तो खंगार !
खड्ग मार्ग पर कलम पथी हम ,
लेकर यह संकल्प चले !
बने जुझौती राज्य हमारा ,
राजधानी हो गढ़ कुंडार !!
१६
लिखा नियति ने जो किस्मत में,
रख उस पर ही अधिकार !
आन मिलेगा तुझे वक्त पर ,
व्यर्थ न श्रम तू कर बेकार !
वक़्त से पहले अधिक भाग्य से ,
मिला किसे कब जीवन में !
व्यर्थ पटक कर हाँथ पैर अब ,
थक कर बैठा गढ़ कुंडार !!
१७
जिन होंठो पर मंद हँसी थी ,
जिनका जीवन था सुकुमार !
दिया उन्हें भी क्रूर काल ने ,
अंगारों का शयनागार !
घायल मन ले जा सोयी थी ,
युद्धानल जिनकी प्यास !
सारे वारे फूल सिराये ,
ताकी जीवे गढ़ कुंडार !!
१८
लुटाया अपना सारा हास ,
बचाया आंसू का ही हार !
सुखों का तज करके भण्डार ,
रखा बेदना पर अधिकार !
सुख देकर दुःख लेकर ही है ,
अपनाई यह नीरवता !
शायद सूफी शायद मौला ,
लगता तभी तो गढ़ कुंडार !!
१९
अहा चंदेलों का स्वर्णिम युग ,
और खंगारों की तलवार !
अपने अपने युग के द्योतक ,
कहाँ गए हैं अबकी बार !
कहाँ बुंदेले मधुकर जैसे ,
जो समझे जननी का मान !
वह युग खड्ग और वह टीका ,
ढूंढ रहा है गढ़ कुंडार !!
२०
भाई भिड़े भाई से और ,
पुत्र पिता पर करता वार !
बड़े बड़े कुल वंश मिटे हैं ,
कोई बचा न दीप उजार !
सारे झगड़ों की जननी है ,
ये जर जोरू और जमीन !
इसीलिए यह मोह के बंधन ,
काट चुका है गढ़ कुंडार !!
२१
करधई की करधोनी पहने ,
शैल शिलाओं के उर हार !
चढ़कर नीरवता की भस्म ,
बना है योगी यह खंगार !
बड़ा कठिनतम योग साधकर,
पाने कोई दुर्गुम लक्ष्य !
योग साधकर योगीश्वर से ,
हठ कर बैठा गढ़ कुंडार !!
२२
वीरता के मद में थे चूर ,
मान मदिरा पी खंगार !
कीमती था मदिरा का मूल्य ,
जिंदगी बस दिन दो चार !
मातृका मधुशाला का मोल ,
चुका देकर के बलिदान !
स्वतंत्रते तेरी मंजिल में है ,
नीव का पत्थर गढ़ कुंडार !!
२३
सुना किसी ने देवी से ,
वर में मांग लिया कुंडार !
बड़ा प्रतापी वंश हुआ वह ,
गिरा रक्त की बुँदे चार !
अपने मुंह बनते मियां मिट्ठू ,
गढ़ते झूठे अफ़साने !
बांदेलों की वंशावली सुन ,
हंस लेता है गढ़ कुंडार !!
२४
एक अभागा निष्कासित हो ,
याचक बनकर आया द्वार !
शरणागत हो वाही वंश तो ,
बन बैठा था गद्दार !
दिल्ली में अस्मत का सौदा ,
बांदेलों ने कर डाला !
नेकी करते बड़ी हुई यह ,
अब पछताता गढ़ कुंडार
२५
कुल गौरव भूल गए सारा ,
और मद्य पर हुए निसार !
सारे दारुण दोष सहेजे ,
भूले स्व को ही खंगार !
तुमसे पुरखों की तुलना जब ,
कर ली श्रेष्ठ कथेरों ने !
हिलक हिलक कर अक्सर देखा ,
मैंने रोता गढ़ कुंडार !!
************************
*************************
द्वारा -
अशोक सूर्यवेदी
मो0-  9450040227
मऊरानीपुर झाँसी